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  केवल भौतिक शरीर ही नश्वर है और शरीर में व्याप्त आत्मा अविनाशी, अपरिमेय तथा शाश्वत है। अतः हे भरतवंशी! युद्ध करो। वास्तव में शरीर मिट्टी से बना है। यह मिट्टी साग-सब्जियों, फलों, अनाज, दाल और घास में परिवर्तित होती है।  हम मनुष्य इन खाद्य पदार्थो का सेवन करते हैं और ये हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं। अतः यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि शरीर मिट्टी से निर्मित है। इसके अतिरिक्त मृत्यु के समय जब आत्मा शरीर को छोड़ देती है तब शरीर की अंत्येष्टि तीन प्रकार से की जाती है-कृमि, विद् या भस्म। यदि शरीर को अग्नि में जलाया जाता है तब यह राख में परिवर्तित हो जाता है यदि दफनाया जाता है तो यह कीटाणुओं का भोजन बनता है और अंततः मिट्टी में मिल जाता है और यदि इसे जल मे प्रवाहित कर दिया जाता है तो यह समुद्री जीवों का ग्रास बनता है और उनके मलत्याग से अंततः समुद्र के तल की मिट्टी में मिल जाता है। इस प्रकार से मिट्टी संसार में अद्भुत प्रकार से आवर्तन करती है। यही मिट्टी खाद्य पदार्थों में परिवर्तित होती है और इन्हीं खाद्य पदार्थों से हमारा शरीर बनता है और अंततः मृत्यु के पश्चात शरीर मिट्टी में परिवर्तित हो
   जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते। श्रीकृष्ण सटीक तर्क के साथ आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म में देहान्तरण के सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं। वे यह समझा रहे हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन में उसका शरीर बाल्यावस्था से युवावस्था, प्रौढ़ता और बाद में वृद्धावस्था में परिवर्तित होता रहता है। आधुनिक विज्ञान से भी यह जानकारी मिलती है कि पुरानी कोशिकाएँ जब नष्ट हो जाती हैं तो नयी कोशिकाएँ उनका स्थान ले लेती हैं।   इस श्लोक में देहे का अर्थ 'शरीर' और देहि का अर्थ 'शरीर का स्वामी' या आत्मा है। श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करते हुए अवगत कराते हैं कि शरीर में केवल एक ही जीवन तक क्रमिक परिर्वतन होता रहता है जबकि आत्मा कई शरीरों में प्रवेश करती रहती है। समान रूप से मृत्यु के समय यह दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। वास्तव में जिसे हम लौकिक शब्दों में मृत्यु कहते हैं, वह केवल आत्मा का अपने पुराने दुष
  जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते। श्रीकृष्ण सटीक तर्क के साथ आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म में देहान्तरण के सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं। वे यह समझा रहे हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन में उसका शरीर बाल्यावस्था से युवावस्था, प्रौढ़ता और बाद में वृद्धावस्था में परिवर्तित होता रहता है। आधुनिक विज्ञान से भी यह जानकारी मिलती है कि पुरानी कोशिकाएँ जब नष्ट हो जाती हैं तो नयी कोशिकाएँ उनका स्थान ले लेती हैं।  एक अनुमान के अनुसार सात वर्षों में हमारे शरीर की सभी कोशिकाएँ प्राकृतिक रूप से परिवर्तित होती हैं। इसके अतिरिक्त कोशिकाओं के भीतर के अणु और अधिक शीघ्रता से परिवर्तित होते हैं। हमारे द्वारा ली जाने वाली प्रत्येक श्वास के साथ ऑक्सीजन के अणु उपापचय प्रक्रिया द्वारा हमारी कोशिकाओं में मिल जाते हैं और वे अणु जो अब तक हमारी कोशिकाओं के भीतर फंसे थे, वे कार्बन डाईआक्साइड के रूप में बाहर निकल जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार
   अपोलो मंदिर के द्वार पर 'स्वयं को जानो' शब्द उत्कीर्ण है। एथेंस के विद्वान सुकरात को लोगों को अपने भीतर की प्रकृति को खोजने की प्रेरणा देना प्रिय लगता था। वहाँ की एक स्थानीय दन्तकथा इस प्रकार है कि एक बार सुकरात किसी मार्ग से जा रहा था। अपने गहन दार्शनिक चिन्तन में मगन सुकरात जब अचानक किसी से टकराया तब वह व्यक्ति क्रोध में बड़बड़ाया, “तुम देख नहीं सकते कि तुम कहाँ चल रहे हो, तुम कौन हो?" सुकरात परिहास करते हुए उत्तर देता है-“मेरे प्रिय मित्र, मैं गत चालीस वर्षों से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा हूँ। यदि तुम्हें इसका उत्तर ज्ञात है कि "मैं कौन हूँ, तो कृपया मुझे बताएँ।" वैदिक परम्परा में भी जब ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा दी जाती है तो प्रायः उसका प्रारम्भ आत्म-ज्ञान की शिक्षा से होता है। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में भी इसी दृष्टिकोण को प्रसारित किया है। उनका निम्न संक्षिप्त संदेश सुकरात के हृदय को भी छू लेता। श्रीकृष्ण अपने दिव्य उपदेश के प्रारम्भ में यह वर्णन कर रहे हैं कि जिस अस्तित्व को हम 'स्वयं' कहते हैं, वह आत्मा है न कि भौतिक शरीर और यह भगवान के समान नित
  भूकंप, चक्रवात, बाढ़ और तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भी भगवान द्वारा सृष्टि के सृजन के लिए निर्मित योजना का ही मुख्य भाग हैं। यह भी कहा जाता है कि भगवान जानबूझ कर कठिन परिस्थितियाँ उत्पन्न करते हैं ताकि लोगों को उनकी आध्यात्मिक उन्नति की यात्रा में शिथिल होने से रोका जाए।  जब मनुष्य आत्मसंतुष्ट हो जाता है तब प्राकृतिक आपदाएँ मनुष्य को अपनी पूरी शक्ति लगाकर इनका सामना करने में समर्थ बनाने के लिए उत्पन्न होती हैं जिससे उसकी आत्मिक उन्नति सुनिश्चित होती है। यह ध्यान देना आवश्यक है कि जिस उन्नति की हम बात कर रहे हैं उसका तात्पर्य बाहरी भौतिक विलासिताओं को बढ़ाने से नहीं है अपितु यह आत्मा की आनन्दमयी दिव्यता का नित्य आन्तरिक प्रकटन है।
  तत्पश्चात कुरूवंश के वयोवृद्ध परम यशस्वी महायोद्धा भीष्म पितामह ने सिंह-गर्जना जैसी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया जिसे सुनकर दुर्योधन हर्षित हुआ। भीष्म पितामह अपने भतीजे दुर्योधन के भीतर के भय को समझ गये थे और उसके प्रति अपने स्वाभाविक करूणाभाव के कारण उन्होंने दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए उच्च स्वर में शंखनाद किया। यद्यपि वे जानते थे कि दूसरे पक्ष पाण्डवों की सेना में स्वयं परम पुरूषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के उपस्थित होने पर दुर्योधन किसी भी स्थिति में युद्ध में विजय प्राप्त नहीं कर सकता। फिर भी भीष्म अपने भतीजे को यह बताना चाहते थे कि वे युद्ध करने के अपने दायित्व का भली-भांति पालन करेंगे और इस संबंध में किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं दिखाएंगे। उस समय प्रचलित युद्ध के नियमों के अनुसार शंखनाद द्वारा युद्ध का उद्घाटन किया जाता था।
  अतः मैं कौरव सेना के सभी योद्धागणों से भी आग्रह करता हूँ कि सब अपने मोर्चे पर अडिग रहते हुए भीष्म पितामह की पूरी सहायता करें। दुर्योधन यह समझ गया था कि भीष्म पितामह मानसिक रूप से पाण्डवों के विरूद्ध आक्रान्त होकर युद्ध लड़ने को इच्छुक नही हैं जिसके कारण वे सैनिकों को वीरता और उत्साह से युद्ध करने के लिए प्रेरित नही करेंगे। इसलिए उसने अपनी सेना के अन्य सेना नायकों से अपनी-अपनी स्थिति पर अडिग रहने के साथ-साथ चारों ओर से भीष्म पितामह की सुरक्षा का भी ध्यान रखने को कहा।