जैसे देहधारी आत्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था और वृद्धावस्था की ओर निरन्तर अग्रसर होती है, वैसे ही मृत्यु के समय आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। बुद्धिमान मनुष्य ऐसे परिवर्तन से मोहित नहीं होते।

श्रीकृष्ण सटीक तर्क के साथ आत्मा के एक जन्म से दूसरे जन्म में देहान्तरण के सिद्धान्त को सिद्ध करते हैं। वे यह समझा रहे हैं कि किसी भी मनुष्य के जीवन में उसका शरीर बाल्यावस्था से युवावस्था, प्रौढ़ता और बाद में वृद्धावस्था में परिवर्तित होता रहता है। आधुनिक विज्ञान से भी यह जानकारी मिलती है कि पुरानी कोशिकाएँ जब नष्ट हो जाती हैं तो नयी कोशिकाएँ उनका स्थान ले लेती हैं। 

एक अनुमान के अनुसार सात वर्षों में हमारे शरीर की सभी कोशिकाएँ प्राकृतिक रूप से परिवर्तित होती हैं। इसके अतिरिक्त कोशिकाओं के भीतर के अणु और अधिक शीघ्रता से परिवर्तित होते हैं। हमारे द्वारा ली जाने वाली प्रत्येक श्वास के साथ ऑक्सीजन के अणु उपापचय प्रक्रिया द्वारा हमारी कोशिकाओं में मिल जाते हैं और वे अणु जो अब तक हमारी कोशिकाओं के भीतर फंसे थे, वे कार्बन डाईआक्साइड के रूप में बाहर निकल जाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक वर्ष के दौरान हमारे शरीर के लगभग 98 प्रतिशत अणु परिवर्तित होते हैं और फिर भी शरीर के क्रमिक विकास के पश्चात हम स्वयं को वही व्यक्ति समझते हैं। क्योंकि हम भौतिक शरीर नहीं हैं अपितु इसमें दिव्य आत्मा निवास करती है।

 इस श्लोक में देहे का अर्थ 'शरीर' और देहि का अर्थ 'शरीर का स्वामी' या आत्मा है। श्रीकृष्ण अर्जुन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित करते हुए अवगत कराते हैं कि शरीर में केवल एक ही जीवन तक क्रमिक परिर्वतन होता रहता है जबकि आत्मा कई शरीरों में प्रवेश करती रहती है। समान रूप से मृत्यु के समय यह दूसरे शरीर में प्रवेश करती है। वास्तव में जिसे हम लौकिक शब्दों में मृत्यु कहते हैं, वह केवल आत्मा का अपने पुराने दुष्क्रियाशील शरीर से अलग होना है और जिसे हम 'जन्म' कहते हैं, वह आत्मा का कहीं पर भी किसी नये शरीर में प्रविष्ट होना है। यही पुनर्जन्म का सिद्धान्त है।

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